Wednesday, October 22, 2025
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    दिंगबर जैन समाज का श्री सिद्धवरकूट एक परम पूनीत प्राचीन,महाज्ञान एवं रमणीक, शोभायमन, मोहनी,रुप सिद्धक्षेत्र है

    लखनऊ। भारत वर्ष में दिंगबर जैन समाज का श्री सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट मध्यप्रदेश के पूर्व निमाड़ जिले की खंडवा तहसील में ओंकारेश्वर तीर्थ के पास है। यह एक परम पूनीत प्राचीन,महाज्ञान एवं रमणीक, शोभायमन, मोहनी,रुप सिद्धक्षेत्र है।
    यह क्षेत्र उज्जैन के पास नर्मदा नदी एवं कावेरी नदी के संगम के पास है। पर्वत श्रेणियों के मध्य में एक समतल पर्वत शिखर पर स्थित है जहां प्रकृति अपनी छटा बिखेरे हुए है। इस तीर्थक्षेत्र का प्राकृतिक सौंदर्य सहसा चित्त को आकर्षित करता है।

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    यह परम पूनीत क्षेत्र प्राचीन काल से विद्यमान है। इसके महत्व का वर्णन प्राचीनकाल के अनेक शास्त्रों में किया हुआ है। दो चक्रवर्ती-माधव चक्रवर्ती और सनतकुमार चक्रवर्ती श्री सिद्धवरकुट क्षेत्र से मोक्ष गए थे और 10 काम देवता सनतकुमार, वत्सराज, कनकप्रभा, मेघप्रभा, विजयराज,श्री चंद,नलराज,वलीराज,वासुदेव और जीवनधर भी इसी क्षेत्र से मोक्ष गए हैं।इसके अलावा साढ़े तीन करोड़ मुनियों ने भी कठिन तपस्या द्वारा कर्म रुपी शत्रु को ध्यान रुपी खड़ग से बिदार कर केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध पद को प्राप्त किया। ऐसे परम पूनीत क्षेत्र की वंदना करते हुए परिचय देने में प्रसन्नता हो रही हैं।

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    जैन समाज का यह अहोभाग्य था कि कि कार्तिक कृष्ण 14 संवत् 1935 को इंदौर पट्ट के भट्टारक महेन्द्रकीर्तिक को अकस्मात स्वप्न आया और शास्त्र रचना देखने में आई। तत्पश्चात जानकारी हेतु श्री भट्टरकजी ने इस सीन के अवलोकनार्थ रेवा नदी के आसपास के वन में भ्रमण करते हुए तथा द्वितीय मूर्ति सोमसेन स्वामी प्रतिष्ठयाचार्य द्वारा प्रतिष्ठा कराई हुई विक्रम संवत् 11 की अदिनाथ स्वामी की प्रतिमा प्राप्त हुई तथा विशाल मंदिर भी दृष्टिगोचर हुआ।

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    जिसके द्वार पर वीतराग भगवान की प्राचीन दिंगबर मूर्ति अंकित थी। जिसके भीतर चैत्यालय भी बना हुआ था। इसके अतिरिक्त दो-तीन मंदिर भग्नावेष अवस्था में दृष्टिगोचर हुए। इससे वे इस निर्णय पर पहुँचे कि इसी स्थान पर सिद्धवरकूट होना चाहिए।
    प्राचीन विशाल मंदिर जीर्णोद्धार कराने के भाव भूरजी सूरजमलजी मोदी इंदौर वाले व उसके कुटुम्बिक महानुभावों के हुए। तथा माघ सुदी 3 संवत् 1940 से मंदिर के जीणोंद्वार का कार्य प्रारंभ हुआ तथा मंदिर प्रतिष्ठा व बिम्ब प्रतिष्ठा संवत 1951 में हकमलजी शोलापुर निवासी ने भट्टारक महेन्द्रकीर्तिजी प्रतिष्ठााचार्य द्वारा कराई गई। इस प्रकार से यह क्षेत्र प्रकाश में आया। यही शिखरबंद मंदिर आज बड़ा मंदिरजी के नाम से प्रख्यात है।

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    बड़वाह तथा इंदौर के धर्मप्रेमियों ने श्रद्धा एवं भक्ति से प्रेरित होकर मंदिर बनवाए तथा अन्य स्थानों के धर्मप्रेमियों के द्वारा भी मंदिर डेहरी चैत्यालय छत्री, मानस्तंभ धर्मशालाएँ निर्मित होती गई। इस प्रकार इस क्षेत्र पर अब 10 मंदिर, 1 डेहरी, 1 छत्री, 1 मानस्तंभ और 6 चैत्यालय स्थित है। इस प्रकार 19 स्थान पर बना है।

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    कार्यालय व दुकानों को छोड़कर यात्रियों के ठहरने के लिए विशाल धर्मशाला और एसी कमरे पृथक उदासीन आश्रम गृह है। पूजन गृह,रोशनी, बर्तन,बिछायत, पानी के लिए नल आदि आवश्यक सुविधाएँ हैं।
    क्षेत्र पर टेलीफोन भी है। क्षेत्र की जलवायु उपयुक्त एवं निरोग है। एकांत स्थान होने की वजह से ध्यान के लिए अत्यंत उपयुक्त है। ऐसे तीर्थ का दर्शन मात्र ही महान पुण्य का बंध है।
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